दण्ड विधान के प्राचीन और वर्तमान परिप्रेक्ष्य: एक अध्ययन
Journal Title: RIVISTA - Year 2017, Vol 1, Issue 1
Abstract
मनुष्य हर युग में सामाजिक प्राणी होते हुए भी कई बार समाज विरोधी कार्य भी करता है। इन कार्यों की गणना अपराध के रुप में होती है। इसी कारण समाज ने अपने प्रत्येक सदस्य की सर्वविध सुरक्षा एवं उनके हितार्थ विविध नियम एवं उपनियम बनाए है। जिन्हें संतान्य भाषा में कानून अथवा विधि कहते हैं। इन्हीं से समाज में सर्वथा सुख-शान्ति, सुव्यवस्था बनाने का प्रयास किया जाता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि अपराध की अवधारणा एक समाज से दूसरे समाज में तथा एक युग से दूसरे युग में परिवर्तित होती रही है। इसी अनुरुप दण्ड व्यवस्था में भी बदलाव दृष्टिगोचर होता है। किसी भी समाज और संस्कृति के इतिहास का वर्तमान और भविष्य से गहरा सम्बन्ध होता है। इसी संदर्भ में प्राचीन भारतीय समाज में अपराध के संदर्भ में प्रयुक्त दण्ड व्यवस्था जो प्राचीन साहित्यों में उल्लेखित हैं। यदि तत्कालीन व्यवस्था के अनुरूप प्रावधान वर्तमान में भी अपनाये जाए तो संस्कृति की रक्षा संभव है और समाज में अपराधों की रोकथाम के लिए प्राचीन अनुभवों का लाभ भी लिया जा सकता है। किंतु यह भी जरुरी नहीं कि दण्ड़ संबंधित प्राचीन विधान और प्रावधान वर्तमान में उपयोगी हो। इसी दृष्टि से प्रस्तुत आलेख में प्राचीन साहित्य में उल्लेखित दण्ड व्यवस्था के साथ वर्तमान दण्ड व्यवस्था के तुलनात्मक संदर्भों का विश्लेषण प्रस्तुत किया जा रहा है। आलेख अपराध और दण्ड की सैद्धांतिकी के साथ ही, प्राचीन और आधुनिक काल में प्रचलित दण्ड व्यवस्था पर प्रकाश डालता है और अंततः प्राचीन दण्ड व्यवस्था की वर्तमानकालिक प्रांसगिकता को रेखांकित करता है।
Authors and Affiliations
Archana Jain, Manoj Rajguru
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वायुमण्डलीय विद्युत : एक अध्ययन
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